कभी टीवी के मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहे जाने वाले अभिनेता वरुण बडोला अब डिजिटल प्लेटफार्म पर अभिनय के साथ-साथ लेखन और निर्देशन भी कर रहे हैं। इस क्रम में वह हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज ‘जमनापार’ में के. डी. बंसल की भूमिका में नजर आए, जो अपने बेटे को पेशेवर तौर पर विरासत संभालने के लिए दबाव डालता है। बच्चों की परवरिश, सिनेमा में क्षेत्रवाद और शौक को प्रोफेशन बनाने पर उन्होंने साझा किए अपने विचार…
अगर कोई माता-पिता अपने बच्चे के अच्छे भविष्य को देखते हुए उसे अपनी विरासत या व्यापार संभालने के लिए कहता है तो इसमें कुछ बहुत गलत तो नहीं है। हालांकि, मुझे पहले भी इस चीज से थोड़ी परेशानी थी। हमारे यहां कुछ माता-पिता स्वयं भले ही कुछ न कर पाएं, लेकिन सोचते हैं कि वे बच्चों का करियर बना देंगे।
मुझे इसमें कोई तर्क नहीं दिखता है। मेरा यह सोच थोड़ा विवादास्पद है, लेकिन फिर भी मैं यह कहना चाहूंगा कि जब हमारे यहां पहले गुरुकुल की परंपरा थी, तब शिक्षक पहले देखते थे कि बच्चा किस तरह की शिक्षा लेने लायक है। पश्चिमी देशों की तुलना और विकास की दौड़ में भागते-भागते हमने एक ऐसी शिक्षा पद्धति खड़ी कर दी, जहां हर कोई एक ही लीक पर भाग रहा है।
गुरुकुल के दौर में जो शस्त्र उठाता था, उसे लड़ना सिखाया जाता था, कुम्हार को घड़े बनाना और जो खेती करना चाहता था, उसे खेती ही सिखाई जाती थी। वैसे भी हिंदुस्तान में शौक की कीमत तो बहुत पहले ही खत्म हो चुकी है।
अपने शौक को पेशा बनाने की राह में आपको क्या कीमतें चुकानी पड़ीं?
एक्टिंग तो अभी भी मेरे लिए शौक ही है। हां, यह मेरा भाग्य है कि उसके लिए मुझे पैसे मिलते हैं। इंडस्ट्री में कई लोग हैं जो शायद साल में 200 दिन काम करते हैं। मैं एक साल में कुल मिलाकर 30 से 60 दिन काम करता हूं। किसी साल में 60 दिन काम कर लिया, तो मेरे लिए बड़ी बात होती है। हमारे पेशे में तैयारी का समय बहुत ज्यादा होता है, उसे प्रस्तुत करने का बहुत कम। हां, उन 30 या 60 दिनों में जो भी काम करते हैं, उसे इतनी शिद्दत से करें कि लोग सालों साल उसके बारे में बातें करें। हर पेशा, हर शौक आपसे एक कीमत मांगता है। अगर आप अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर मढ़े बगैर वह कीमत अदा करने के लिए तैयार हैं, तभी आपको उस राह में आगे बढ़ना चाहिए।
अपने बेटे का कैसे मार्गदर्शन करते हैं और मार्गदर्शन तथा पसंद में दखलअंदाजी में कितना फर्क देखते हैं?
आजकल के बच्चों के लिए दुनिया पूरी खुली हुई है। जो सारी चीज हमें कूट-कूटकर सिखाई गई है, वह सब बच्चों को आज यूं ही पता है। बच्चों को पूरी स्वतंत्रता देने का महत्व हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि अगर कोई पौधा गमले में उगाए, तो वह सीमित विकास पाता है। अगर उसे जमीन पर लगाएं, तो मनचाहा विकास करता है। कुछ पौधों को दिशा दिखाने या चढ़ने के लिए डोर या सहारा भी दिया जाता है। बच्चों पर नजर रखें, जहां कुछ सुधार करने की जरूरत हो तो उन्हें बताएं, लेकिन उन पर पूरी तरह से हावी न हो जाएं। वह न मेरे साथ हुआ, ना मैं वह अपने बेटे के साथ करूंगा।
शो में क्षेत्रवाद की परेशानियां भी दिखाई गई हैं, हाल ही में अभिनेता मनोज बाजपेयी ने भी इस पर बोला था। सिनेमा इंडस्ट्री में आप इसे कैसे देखते हैं?
जब आप आगे बढ़ते हैं तो आपकी औकात आपके शहर की कीमत बढ़ाती है। उदाहरण के लिए स्टार बनने से पहले लोग अक्सर कलाकारों से पूछते हैं कि किस स्कूल से पढ़ाई की है? वहीं स्टार बनने के बाद उसी स्कूल का नाम उस स्टार के नाम से पहचाना जाता है। इस इंडस्ट्री में आने के बाद आपको सिर्फ एक चीज के ऊपर ध्यान देना होता है, वह है स्वयं का विकास। अगर लोगों के नजरिए से खुद को परखने की कोशिश करेंगे, तो हमेशा इसी फेर में पड़े रहेंगे। आगे बढ़ने के लिए उससे बाहर निकलने की जरूरत होती है।
बतौर निर्देशक अगला प्रोजेक्ट कब ला रहे हैं?
इस साल के आखिर में वेब सीरीज ‘ये काली काली आंखें’ का दूसरा सीजन आएगा। हालांकि, मैंने उसका भी पूरा सीजन निर्देशित नहीं किया है। पूरा सीजन निर्देशित करने के लिए मुझे एक्टिंग छोड़नी पड़ेगी और हो सकता है लेखन भी छोड़ना पड़े क्योंकि निर्देशन आसान काम नहीं है।