वहीं शिरोमणि अकाली दल में बगावत देखने को मिल रही है। उप चुनाव के चलते सभी राजनीतिक पार्टीयां जालंधर में डेरा लगाए हुए हैं।
शिरोमणि अकाली दल में कहल खत्म होने के नाम ही नहीं ले रही है। आज एक बार फिर गुरप्रताप सिंह वडाला, सरवन सिंह फिल्लौर, बीबी जागीर कौर व अन्य अकाली नेताओं द्वारा प्रेस वार्ता की गई।
इस दौरान जहां पर मौजूद सरवन सिंह फिल्लौर, गुरप्रताप सिंह वडाला ने पार्टी की गतिविधियों पर सवाल उठाए वहीं बीबी जागीर कौर ने पार्टी प्रधान सुखबीर सिंह बादल पर निशाना साधते हुए कहा कि पार्टी सदस्यों ने बीबी सुरजीत कौर को उप चुनाव के लिए टिकट दिया है।
लेकिन सुरजीत कौर के साथ धोखा हुआ है। इस मौके पर बीबी जागीर कौर ने पंथ के नेताओं से अपील भी की है कि जालंधर उप चुनाव में सुरजीत कौर का समर्थन करें और उन्हें वोट दें। सुखबीर बादल ने इस बार इतिहास रचा है, उम्मीदवार को टिकट देकर वापस लेने की बात कही जा रही है। जबकि इतिहास में आज तक ऐसा नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि सुरजीत कौर का चुनाव निशान तकड़ी ही है।
पूर्व विधायक गुरप्रताप सिंह वडाला ने कहा कि सुखबीर बादल की अध्यक्षता में पार्टी को काफी नुकसान हुआ है और पार्टी बहुत ही बुरी स्थिति में गुजर रही है। आने वाले समय में जीत के लिए पार्टी में बदलाव की जरूरत है।
पार्टी अपने ही सिद्धांतों पर खरी नहीं उतरी है। वडाला ने सुरजीत कौर को वोट डालने की अपील भी की है। उन्होंने कहा कि सुखबीर सिंह बादल ने खुद अपने एक भाषण में कहा था कि पार्टी किसी एक व्यक्ति की जागीर नहीं है, तो अब पार्टी प्रधान खुद ही पार्टी को छोड़ देना चाहिए। वडाला ने कहा कि प्रधान सुखबीर बादल ने बीएसपी का समर्थन करने की बात कहकर गरीब परिवार का मजाक उड़ाया है।
इससे पहले भी दल में हुई है टूट
ऐसा शिरोमणि अकाली दल के इतिहास में पहली बार नहीं होने जा रहा है। इससे पहले भी कई बार दल में टूट हुई है। 1989 के बाद से तो दल इतने गुटों में टूट गया था कि उसको एक साथ लाने में कई दिग्गजो को मशक्कत करनी पड़ी।
शिरोमणि अकाली दल जो पंथक नुमाइंदगी के लिए गठित हुई थी ने अपने सिद्धांत को लेकर कई बार बदलाव किया। कभी हालात के अनुसार तो कभी राजनीतिक सत्ता की खातिर।
1996 में भी हुआ था घमासान
सबसे बड़ा बदलाव 1996 में तब आया जब मोगा अधिवेशन में पार्टी ने पंथ की बजाए पंजाबियों की नुमाइंदा पार्टी बनना मंजूर किया। भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौते को लेकर उन दिनों भी काफी घमासान हुआ।
चूंकि प्रकाश सिंह बादल पूरी तरह से पार्टी पर कब्जा कर चुके थे और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में भी भारी जीत बनाकर उनकी पकड़ इतनी मजबूत हो गई कि इन चुनाव में कुलदीप सिंह वडाला सरीखे नेताओं की बगावत भी उन्हें रोक नहीं पाई।
997 में सत्ता में आते ही उन्होंने पार्टी में अपनी पकड़ को और मजबूत बना ली, जिस कारण 1999 में जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा जैसे नेता उनसे अलग हो गए। अब पार्टी, सरकार और एसजीपीसी, तीनों प्रमुख संस्थाओं पर बादल परिवार का ही राज था। 2002 में गुरचरण सिंह टोहरा का सर्व हिंद अकाली दल कोई सीट तो नहीं जीत पाया लेकिन उसने अकाली दल की हार में अपनी भूमिका जरूर निभाई।
2002 में अमरिंदर सिंह ने छेड़ी थी मुहिम
2002 में जैसे ही भ्रष्टाचार को लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सत्ता में आते ही प्रकाश सिंह बादल और उनके मंत्रियों के खिलाफ मुहिम छेड़ी तो गुरचरण सिंह टोहरा एक बार फिर से सारे मतभेद भुलाते हुए प्रकाश सिंह बादल की मदद को आगे आ गए।
अकाली दल ने 10 साल किया राज
साल 2007 में अकाली दल फिर सत्ता में आ गया और दस साल तक राज करता रहा। लेकिन 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मुद्दे को लेकर पंथक गुट आपस में बंट गए। 2017 में अकाली दल की बुरी तरह से हार हुई।
सुखदेव सिंह ढींडसा और रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा सरीखे दिग्गज नेताओं ने सुखबीर बादल की प्रधानगी में काम करने से मना करते हुए अपना अपना दल बना लिया। लेकिन ये भी कामयाब नहीं हो सके और अकाली दल में वापसी कर गए। अब जब एक बार फिर से संसदीय चुनाव में शिरोमणि अकाली दल की बुरी तरह से हार हुई है उसमें फिर बागी सुरें उठने लगी हैं।