
चना और मूंग में आत्मनिर्भरता प्राप्त हो चुकी है
सरकार का दावा है कि चना और मूंग में आत्मनिर्भरता प्राप्त हो चुकी है। तुअर, उड़द और मसूर का उत्पादन बढ़ाने पर काम करना है। इसके लिए किसानों को प्रोत्साहित कर संसाधन देना होगा। प्रथम प्रयास में अरहर, उड़द एवं मसूर की सारी उपज खरीदने का फैसला लिया गया है। पहले कुल पैदावार का सिर्फ 40 प्रतिशत ही बेचा जा सकता था।
बाजार में दालों की आपूर्ति बढ़ेगी
घरेलू खपत की लगभग 25 प्रतिशत के लिए आयात पर ही निर्भरता
विपरीत मौसम के बावजूद अब की ढाई प्रतिशत ज्यादा उत्पादन की उम्मीद है। 1951 में भारत में दलहन का रकबा 190 लाख हेक्टेयर ही था, जो अब बढ़कर 310 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है। उत्पादन भी बढ़ा है, मगर सच है कि घरेलू खपत की लगभग 25 प्रतिशत के लिए आयात पर ही निर्भरता है। स्पष्ट है कि रकबा के साथ-साथ उत्पादकता बढ़ाना भी जरूरी है।
उत्पादकता में पीछे
दूसरे देशों की तुलना में भारत में दाल की उत्पादकता काफी कम है। कनाडा में एक हेक्टेयर में करीब 1910 किलोग्राम और अमेरिका में 1900 किलोग्राम दाल की उपज होती है। चीन भी प्रति हेक्टेयर 1821 किलो दाल उपजा लेता है, मगर भारत में सिर्फ700 किलोग्राम ही हो पाता है। रकबा के साथ उत्पादकता बढ़ाने में भी सफल हो गए तो आयातक देश का धब्बा मिट सकता है।
कम होती गई दाल की उपलब्धता
आजादी के बाद खाद्य सुरक्षा पर जोर था, जिससे गेहूं-धान की खेती को प्रोत्साहन मिला। 1950 में दलहन का रकबा गेहूं की तुलना में लगभग दुगुना था, लेकिन बड़ी आबादी को गेहूं-चावल उपलब्ध कराने के प्रयास में दलहन की फसलें पीछे छूटती गईं। एक समय ऐसा आया कि आयात पर निर्भर होना पड़ा। अब दलहन का जितना रकबा एवं उत्पादन जितना बढ़ता है, उससे ज्यादा खाने वाले बढ़ जाते हैं।
इससे प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता कम होती गई। 1951 में प्रति वर्ष 22.1 किलो दाल की प्रति व्यक्ति खपत थी, जो अब 16 किलो रह गई। हालांकि बीच के वर्षों में पोषण के प्रति जागरूकता के चलते खपत के आंकड़े में सुधार हुआ है, नहीं तो 2010 में प्रति व्यक्ति सिर्फ 12.9 किलोग्राम ही उपलब्धता थी।